क्या भ्रष्टाचार और सजा की जात होती है? बड़े-बड़े मामलों का मूल्यांकन तो यही कहता है
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क्या भ्रष्टाचार और सजा की जात होती है? बड़े-बड़े मामलों का मूल्यांकन तो यही कहता है

क्या ‘निचली’ जातियों और समूहूों के नेता ज्यादा भ्रष्ट होते हैं? यह सवाल तब भी उठा था जब एक मुकदमे में लालू यादव के खिलाफ फैसला आया था.

   
चित्रण/ पीयाली डिज़ाइन

चित्रण/ पीयाली डिज़ाइन

क्या ‘निचली’ जातियों और समूहूों के नेता ज्यादा भ्रष्ट होते हैं? यह सवाल तब भी उठा था जब एक मुकदमे में लालू यादव के खिलाफ फैसला आया था.

क्या भ्रष्टाचार और अपराध का जाति अथवा संप्रदाय से कोई संबंध होता है? क्या जातियों के क्रम में जो जितना नीचे होता है उतना ही भ्रष्टाचार के मामले से उसके जुड़ने (अथवा उसमें पकड़े जाने) की संभावना ज्यादा हो जाती है? ऐसे सवालों की पड़ताल जरूरी है.

एक सूची प्रस्तुत है- छह साल मुकदमा लड़ने और विचाराधीन कैदी की तरह 15 महीने जेल में रहने के बाद बरी हुए राजा दलित हैं. उनके साथ ही बरी हुईं उनकी पार्टी सहयोगी कनिमोई पिछड़ी जाति से हैं. हाल में कोयला घोटाले के लिए सजा पाए मधु कोड़ा, और घूसखोरी तथा हत्या के मामले से बरी हुए शिबू सोरेन आदिवासी हैं; दलित मायावती, पिछड़ी जाति के लालू यादव तथा मुलायम सिंह यादव भ्रष्टाचार तथा आय से अधिक संपत्ति के मामले में धरे जा चुके हैं.

ऐसे मामले तत्कालीन राजनीतिक समीकरण के मुताबिक कमजोर या मजबूत होते रहते हैं. सत्ता के अलमबरदार जब इन लोगों को चुप करना या उन पर दबाव डालना चाहते हैं तब इन मामलों को लेकर कोई ऐसा कदम उठाया जाता है जिससे सुर्खियां बनें. इस सबसे राजनीतिक मतलब सधते ही सब कुछ शांत हो जाता है. भ्रष्टाचार के मामले में सबसे ज्यादा 10 साल तक सजा भुगतने वाले ओम प्रकाश चौटाला एक जाट हैं, जो अभी पिछड़ी जाति नहीं घोषित की गई है लेकिन जाति व्यवस्था में सवर्णों से काफी नीचे है.

जरा 2008 में संसद में हुए ‘नोट के बदले वोट’ कांड को याद कीजिए. फग्गन सिंह कुलस्ते, अशोक अर्गल और महावीर सिंह भगोरा उस समय किए गए एक स्टिंग ऑेपरेशन में, जिसमें राजदीप सरदेसाई के तत्कालीन टीवी चैनल सीएनएन-आइबीएन और सुधींद्र कुलकर्णी (तब आडवाणी के करीबी थे) ने भूमिका निभाई थी, धरे गए थे. ये तीनों अनुसूचित जाति या जनजाति के थे. इससे पहले, सदन में सवाल पूछने के लिए पैसे लेने के मामले से जुड़े बसपा सांसदों में नरेंद्र कुशवाहा और राजाराम पाल पिछड़ी जाति के थे और लाल चंद्र कोल दलित थे. इस मामले में 2005 में 11 सांसदों को निष्कासित किया गया था, जिनमें छह भाजपा के, तीन बसपा के, एक कांग्रेस तथा एक राजद के थे.

बेशक, कुछ ऊंची जातियों के नेता भी ऐसे जाल में फंस चुके हैं- मसलन सुखराम, जयललिता और सुरेश कलमाडी. लेकिन उनकी संख्या कम ही है. और उनके लिए बच निकलने के मौके भी ज्यादा रहते हैं. या फिर उनके मामले लंबे खिंचते रहते हैं. जरा तथ्यों पर गौर करें- सुखराम के बिस्तर से नकदी बरामद हुई थी, उन पर मुकदमा चला और वे दोषी भी पाए गए लेकिन उन्हें जेल की सजा नहीं काटनी पड़ी. वे पूर्णकालिक कांग्रेसी रहे. आज 90 साल की उम्र में उन्होने भाजपा को गले लगा लिया है और वहां उनका पुनर्वास हो गया है. हिमाचल प्रदेश में चुनाव से पहले वे पाला बदलकर अपने पुत्र अनिल के साथ भाजपा में चले गए. पुत्र अब भाजपा विधायक हैं और राज्य में मंत्री बनने के कगार पर है.

क्या आपको लगता है कि ए. राजा और उनके बच्चों की भी तकदीर ऐसी ही होगी और वे भाजपा में पहुंच जाएंगे?

मैंने पॉप समाजशास्त्र और भ्रष्टाचार पर जो ‘जातिवादी’ नजरिया प्रस्तुत किया है, उस पर नाराज होने से पहले कृपया चार तथ्यों पर गौर कर लीजिए.

पहला- सुखराम और राजा जब दूरसंचार मंत्री थे, तभी उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे. दूसरा- सुखराम को दोषी साबित किया गया जबकि राजा बरी कर दिए गए. तीसरा- एक के बिस्तर से नकदी बरामद हुई, जबकि दूसरे के मामले में ट्रायल जज ने स्वांग भरते हुएं पूछा कि भई नकदी कहां है? और अगर पैसे नहीं हैं, तो भ्रष्टाचार कहां है? इसलिए, निर्दोष घोषित.

और चौथा तथा सबसे महत्वपूर्ण तथ्य- सुखराम ब्राह्मण हैं. संभव है कि उनके कदम पहली बार भटक गए हों, उनकी तरह के लोग आमतौर पर भ्रष्ट होते नहीं. और दलित राजा! उनसे आप और क्या उम्मीद कर सकते हैं? ये लोग तो सत्ता और उत्तरदायित्व को संभाल ही नहीं सकते. हमेशा से संदिग्ध!

अब जरा भाजपा के एक दिलचस्प मामले पर गौर कीजिए. इसके दो वरिष्ठ नेता अलग-अलग समय पर कैमरे के सामने नकदी ग्रहण करते पकड़े गए. एक, ऊंची जाति के दिलीप सिंह जूदेव 2003 में नकद नौ लाख रुपये लेते पकड़े गए. उन्हें खुशी-खुशी बहाल कर लिया गया, चुनाव में टिकट दिया गया और वे संसद में लौट आए. मजे की बात यह है कि वे घूस लेते कैमरे पर फिल्मी स्टाइल में यह डायलॉग मारते भी सुने गए- ‘‘पैसा खुदा तो नहीं, लेकिन खुदा की कसम खुदा से कम भी नहीं है.’’ तब वे वाजपेयी सरकार में जूनियर मंत्री थे और घूस देने वाले के साथ ब्लैक लेबल की बोतल का मजा भी लेते देखे¨ गए थे, कैमरे पर.

दूसरे, बंगारू लक्ष्मण 2001 में ‘तहलका’ के स्टिंग में एक लाख रुपये लेते पकड़े गए थे. जूदेव तो एक जूनियर मंत्री थे, जबकि बंगारू उस समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे. संयोग से वे दलित थे और भाजपा में इतने ऊपर तक पहुंचने वाले पहले- और अब तक के एकमात्र- दलित नेता थे. उन्हें भाजपा ने अलग कर दिया, निंदित किया, निष्कासित किया और अकेला छोड़ दिया. वे जेल गए और उस स्टिंग में लगाए गए आरोपों का मुकदमा अकेले लड़ते-लड़ते इस दुनिया से विदा हो गए. तहलका स्टिंग मामले में जेल जाने वाले वे एकमात्र नेता थे. यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है मगर इसे कहा जाना चाहिए- पार्टी ने उनसे एक विजातीय की तरह बरताव किया, जबकि जूदेव का बचाव करती रही. यह भ्रष्टाचार का जातिवादी पहलू है.

क्या आप इस तर्क को न्यायपालिका पर लागू करना चाहते हैं? कई जाने-माने लोग, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दिनों में अण्णा टीम के प्रमुख सदस्य भी उस पर आरोप लगा चुके हैं कि हमारे कई मुख्य न्यायाधीश भ्रष्ट रहे हैं. लेकिन उनमें से केवल एक का नाम लेकर निशाना बनाया गया. वे कौन थे? न्यायमूर्ति के.जी. बालकृष्णन, एक दलित. एक दशक से ज्यादा साल बीत चुके हैं लेकिन उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला है. अभी दो सप्ताह पहले सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया है कि उनके खिलाफ चल रही जांच बंद क्यों न कर दी जाए?

और पड़ताल कीजिए तो पाएंगे कि कामकाज में गड़बड़ी- उच्च न्यायपालिका के प्रति अवज्ञा- के लिए एकमात्र हाइकोर्ट जज जस्टिस कर्णन- एक दलित- को जेल जाना पड़ा था. लेकिन तीन अन्य महामहिम यौन शोषण की शिकायतों के बावजूद बेदाग निकल आए. इनमें से एक वे हैं जिनके दस्तखत से जारी ऐतिहासिक फैसले के कारण राजा द्वारा आवंटित 122 टेलीकॉम लाइसेंसों को रद्द कर दिया गया था. सारे मामले दबा दिए गए. एक मामले में तो एक हाइकोर्ट ने मीडिया को आरोपों की चर्चा करने से भी रोक दिया था. इन तीन जजों में से दो तो सुप्रीम कोर्ट में बैठने लगे जबकि एक को सेवानिवृत्ति के बाद सर्वशक्तिशाली पद सौंपा गया. अंत में, यही बताएंगे इनमें से कोई भी किसी निचली जाति का नहीं था, जिस पर प्रायः संदेह किया जाता है.

क्या ऐसा हो सकता है कि ऊपरी तबका नियमतः ‘पाक साफ’’ होता है? या व्यवस्था सामाजिक पिरामिड के निचले हिस्से के प्रति भेदभाव रखती है? मुसलमानों के हालात पर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि हमारे यहां के मुसलमान अधिकतर जगहों, खासकर सरकारी नौकरियों में आनुपातिक रूप से काफी कम संख्या में हैं. उनकी संख्या एकमात्र जहां ज्यादा है, वह जगह है जेल. इसलिए एक बार फिर यह सवाल मुंह बाये खड़ा है- क्या मुसलमान हिंदुओं के मुकाबले ज्यादा आपराधिक होते हैं? या व्यवस्था उनके प्रति भेदभाव रखती है?

इस मुद्दे को आगे बढ़ाते हुए राजनीतिक हास्य प्रस्तुत करने वाला एक ग्रुप अपने लोकप्रिय शो ‘ऐसी तैसी डेमोक्रेसी’ हमें याद दिलाता है कि भारत में हत्या के लिए फांसी की सजा पाने वालों में अल्पसंख्यकों या निचली जातियों के लोगों की संख्या ज्यादा है. किसी ब्राह्मण को फांसी देनी हो तो वे रस्सी ढीली कर देते हैं. इसके लिए तो उसे महात्मा गांधी सरीखे की हत्या करनी पड़ेगी.

इसलिए, कुछ अहम सवाल उभरते हैं. क्या भ्रष्टाचार या अपराध में जिनेटिक्स का भी कोई तत्व होता है? या क्या दुनिया भर में पुलिस से लेकर जज, मीडिया से लेकर जनमत तक पूरी व्यवस्था वंचितों या मातहत तबकों के प्रति भेदभावपूर्ण है? जरा पुलिस की गोली खाने वाले या जेलों में बंद अफ्रीकी-अमेरिकियों की संख्या पर गौर कर लीजिए. कुछ जगहों पर नस्ल को जो स्थान हासिल है, भारत में जाति का वही स्थान है. भारत में मामला और जटिल इसलिए हो जाता है कि कुछ अल्पसंख्यकों और जनजातियों को भी इसी खांचे में डाल दिया गया है.

पूर्वाग्रह कायम है. इसी की मेहरबानी है कि ब्राह्मण सुखराम दोषी ठहराए जाने के बावजूद जेल जाने से बच जाते हैं और बरी होने के बाद भी ए. राजा को चोर ही माना जाता है. जूदेव को सम्मानपूर्वक पुनस्र्थापित किया जाता है, बंगारू को उपेक्षित कर दिया जाता है. इस तरह के बुरे विचार से आपकी क्रिस्मस की लंबी छुट्टी का जायका बिगाड़ने के लिए मैं क्षमा चाहता हूं. लेकिन हकीकत से सामना करने का कोई समय मुकर्रर नहीं होता.

शेखर गुप्ता दिप्रिंट के एडिटर इन चीफ हैं.