पंजाब से आए दलित कौटिल्य कांशीराम ने मायावती को अपना चंद्रगुप्त बनाया. अगर जिग्नेश में कौशल व महत्वाकांक्षा होगी तो वे इस कथा से काफी सीख ले सकेंगे.
क्या भारतीय राजनीति में एक नया दलित उभार सामने आ रहा है? जिसे अब दलित दावेदारी कहा जा रहा है वह क्या चुनावों के आगामी सीजन में राजनीति में भारी उथलपुथल ला सकती है? अगर ऐसा होता है तो क्या इस रॉकेट में इतना ईंधन है कि वह 2019 तक उड़ान भरता रहेगा या उससे पहले ही धराशायी हो जाएगा?
इसके अलावा सवाल यह भी है कि क्या जिग्नेश मेवाणी इस नए उभार का प्रतिनिधित्व करते हैं? और यह कि, जिग्नेश राजनीतिक अर्थों में क्या हैं- नए कांशीराम? या फुस्स साबित हुए नए महेंद्र सिंह टिकैत अथवा कर्नल (रिटा.) किरोड़ी सिंह बैंसला? कांशीराम ने तो मुख्यधारा की राजनीति पर गहरा असर डाला था, लेकिन दूसरे दोनों नेता अलग-अलग समय पर जाटों और गूजरों में खासा असर रखने के बावजूद बेअसर साबित हुए थे.
भारतीय मतदाताओं की आबादी में दलितों का अनुपात 16.6 प्रतिशत है. इसलिए वे मुसलमानों से ज्यादा बड़ा वोट बैंक हैं. 1989 के पहले के वर्षों में तमिलनाडु, केरल और बाद में पश्चिम बंगाल को छोड़कर बाकी राज्यों में कांग्रेस उनके वोट को अपने लिए तय मान कर चलती थी. 1989 के बाद कांग्रेस पिछड़ों और मुसलमानों के साथ-साथ इस वोट बैंक को भी धीरे-धीरे गंवाने लगी.
वैसे, मुसलमानों की तरह दलितों ने कभी इस लिहाज से एकजुट मतदान नहीं किया कि अमुक दल को जिताना है या अमुक को हराना है. इससे भाजपा को मजबूत होने का मौका मिला. उत्तर प्रदेश और बिहार सहित कई प्रमुख राज्यों में दलितों के वोट कांग्रेस के सिवा बाकी दलों में जाते रहे और यह भाजपा को अपने लिए अनुकूल लगता था. कुछ दलितों को नरेंद्र मोदी ने आकर्षित किया और वे भाजपा की तरफ चल दिए. चूंकि दलित वोटों में बिखराव होने लगा, उनका वजन भी हल्का होता गया.
मुसलमानों के विपरीत दलित वोट इतना विभाजित हो गया है कि उसमें उत्तर प्रदेश को छोड़कर अधिकतर राज्यों में चुनावी भविष्य का फैसला करने की वैसी ताकत नहीं रह गई है. कागज पर तो पंजाब में दलित वोटों का अनुपात सबसे ज्यादा है, 32 प्रतिशत. लेकिन उनमें बड़ी संख्या सिखों की है, और दो दलों के बीच अदलबदल करते रहने वाले इस राज्य में राजनीतिक चुनाव जातिगत आधार पर नहीं लड़े जाते रहे हैं. इसके साथ ही, इनमें से अधिकांश वोट अगर किसी राज्य में किसी एक पक्ष की ओर झुक जाते हैं तो संतुलन बिगड़ जाता है. इसलिए, ऊपर हमने जो कई सवाल उठाए हैं वे कुलमिलाकर इस सवाल में सिमट आते हैं कि आज दलित दावेदारी और नेतृत्व के प्रतीक माने जा रहे जिग्नेश मेवाणी क्या दलित वट को फिर एकजुट करने की क्षमता रखते हैं? ऐसा हुआ तो यह उथलपुथल ला देगा.
जिग्नेश मेवाणी का संभावित उत्कर्ष एक जरूरत को पूरा कर देगा- सभी राज्यों में असर रखने वाले एक करिश्माई नेता की जरूरत को. चूंकि दलित मुख्य राज्यों में काफी हद तक बराबर-बराबर बंटे हुए हैं, इसलिए एक पार्टी को ऐसा नेता चाहिए जिसके इर्दगिर्द सारे एकजुट हो जाएं. सत्तर के दशक के मध्य तक जगजीवन राम कांग्रेस के लिए यह जरूरत पूरी कर रहे थे. उनके बाद वह एक दलित नेता न तो दे पाई और न उसे ताकतवर बनाया. यह उसकी सबसे बड़ी विफलता है. हम जानते हैं कि लोकसभा में उसके नेता मल्लिकार्जुन खड़गे एक दलित हैं, लेकिन न तो वे ताकतवर हैं और न करिश्माई.
इस मामले में भाजपा की स्थिति और भी कमजोर है. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को नहीं गिन सकते. वे दलित हैं, शालीन व्यक्ति हैं लेकिन नेता नहीं हैं. हद से हद वे एक अच्छे प्रतीक हैं. पिछले दिनों दिल्ली में प्रशांत झा की पुस्तक ‘हाउ द बीजेपी विन्स’ के विमोचन के मौके पर मैंने लेखक से पूछा कि भाजपा सरकार में सबसे महत्वपूर्ण दलित नेता कौन है? उन्होंने बताया- थावरचंद गहलोत. नेहरू स्मारक पुस्कालय में जमा जानकार लोगों, जिनमें अधिकतर पत्रकार थें, के समूह से मैंने सवाल किया कि क्या कोई बता सकता है कि गहलोत किस विभाग के मंत्री हैं, तो एक दर्जन से भी कम हाथ ऊपर उठे.
भारत में आज दिलचस्प स्थिति है. जम्मू-कश्मीर और उत्तर-पूर्व को छोड़ दें तो किसी एक राज्य में मुख्यमंत्री पद पर या केंद्र में किसी एक प्रमुख विभाग के मंत्री पद पर न तो कोई अल्पसंख्यक बैठा है, न दलित बैठा है और न कोई आदिवासी. यह जिग्नेश के लिए एक अवसर है. मोदी-शाह जोड़ी इतनी समझदार तो है ही कि इस खतरे को भांप सके. यह जोड़ी विजय अभियान पर निकले सुपर पावर वाली मानसिकता रखती है इसलिए वह इस खतरे को शीघ्रातिशीघ्र खत्म करना चाहेगी. यह भीमा-कोरेगांव के ताजा कांड पर उसकी कथित अतिसक्रियता से स्पष्ट है.
जिग्नेश उना में हुए अत्याचार की प्रतिक्रिया में एक सीमित, स्थानीय गुजराती उभार के रूप में सामने आए थे. चूंकि गुजरात में दलितों की आबादी बहुत बड़ी नहीं है, उन्हें गंभीर राजनीतिक खिलाड़ी के तौर पर नहीं लिया गया. शुरू में उनकी राजनीति जेएनयूवादी विचारधारा से प्रभावित दिखी, जो चुनावी राजनीति से नफरत करती है. लेकिन जब उन्होंने चुनाव लड़ने का फैसला किया तो यह बदल गई. इसके बाद वे एक राष्ट्रीय पार्टी से जुड़ गए, जो सबसे बूर्जुआवादी पार्टी है. गुजरात के विधायक के तौर पर उनका वजन बढ़ गया है. यह उन्हें दूसरे राज्यों में भी अपना संदेश फैलाने की वैधता प्रदान करता है. उन्होंने शुरुआत इस हफ्ते महाराष्ट्र से की.
उनमें कई खूबियां हैं- वे युवा हैं, अपनी बात रखना जानते हैं, निडर हैं, सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं और उनमें राजनीतिक तथा वैचारिक लचीलापन है. उनका लक्ष्य भी स्पष्ट है. वे भाजपा को अपना एकमात्र शत्रु मान कर निशाना बना रहे हैं और इसके आधार पर दूसरों से तालमेल बिठा रहे हैं. उनमें कुछ कमजोरियां भी हैं. वे छोटे राज्य से हैं, उनके साथ उनके वामपंथी झुकाव का ठप्पा है, जो जेएनयू और कुछ दूसरे केंद्रीय विश्वविद्यालयों के बाहर मुख्यधारा में कारगर नहीं होता. लेकिन एक छोटे राज्य से उभरकर भारत के विशाल क्षेत्र में अपनी जबरदस्त राजनीति का सिक्का जमाने वाले दलित नेता हो चुके हैं- कांशीराम. चंडीगढ़ के पास रापेड़ जिले के पंजाबी कांशीराम एक अप्रत्याशित जगह से उभरकर पूरे मंच पर छा गए थे. वे डीआरडीओं में वैज्ञानिक थे. उन्होंने आंबेडकर को पढ़ना शुरू किया और अनुसूचित जातियों, पिछड़ों तथा अल्पसंख्यक समुदाय के कर्मचारियों को लेकर ‘बामसेफ’ नामक अखिल भारतीय संघ बनाया.
शुरू में हमने देखा कि वे सुर्खियों में आने की जुगत में लगे रहते थे. अस्सी के दशक के अस्थिरता भरे दौर में उन्होंने तमाम तरह के समूहों, सिख अलगाववादियों तक को अपने मंच पर इकट्ठा किया और भीड़ जुटाने लगे. लेकिन कोई भी उन्हें गंभीरता से नहीं लेता था. लेकिन जल्दी ही उनका कद बढ़ गया और जैसे अरविंद केजरीवाल ने अण्णा हजारे से संबंध तोड़ा, वैसे ही कांशीराम ने कइयों से किनारा कर लिया. इसी तरह जिग्नेश को अगर राजनीति में आगे बढ़ना है तो उन्हें उमर खालिद से किनारा करना होगा. जैसा कि तीस साल पहले कांशीराम ने समझ लिया था, अपनी जड़ों से नहीं जुड़े रहेंगे तो दलित राजनीति नहीं हो सकती और यह राष्ट्रवाद या धर्म की मुखालफत करके भी नहीं हो सकती.
न तो कांशीराम ने और न ही मायावती ने हिंदुत्व को अपमानित किया और न ही बौद्ध धर्म को अपनाया. अपनी बैठकों में वे कहा करते कि उनकी लड़ाई “हिंदू देवी-देवताओं से नहीं है, मनुवादियों से है” जिन्होने दलितों को उन तक पहुंचने नहीं दिया. वे कहा करते कि हम अपने भगवान को उनके लिए क्यों छोड़ दें, वे तो यही चाहते हैं. और गौतम बुद्ध? मनुवादी तो केवल उनकी आधी मूर्ति को अपने मंदिरों में अपने 33 करोड़ देवताओं में से एक देवता के रूप में रखते हैं. “क्या फर्क पड़ता एक और से?”
उनका पहला बड़ा राजनीतिक अवतार 1988 के ऐतिहासिक इलाहाबाद चुनाव में हुआ था. वी.पी. सिंह ने राजीव मंत्रिममंडल से इस्तीफा दे दिया था और उन पर बोफोर्स घोटाले का आरोप लगाया था. वे इलाहाबाद से चुनाव लड़ रहे थे, जहां से सांसद के तौर पर अमिताभ बच्चन ने इसी घोटाले के चक्कर में इस्तीफा दे दिया था. हमें तब कांशीराम की बेबाकी भरी दलित राजनीति से पहला साक्षात्कार हुआ था. वे कहा करते, “तुमलोग 40 सालों से जानवरों की तरह जी रहे हो. मैं तुम लोगों को आदमी बनाने आया हूं”. उन्होंने बाद में जो अभियान और राजनीति चलाई, जिसके बूते मायावती ने उत्तर प्रदेश में तीन बार सत्ता हासिल की, उसमें तीन बातें प्रमुखता से उभरीं.
पहली बात तो यह कि जिस किसी में भी उन्हें अलगवावादी की झलक दिखी, चाहे सिमरनजीत सिंह मान रहे हों या सुभाष घीसिंग, उसे उन्होंने खारिज कर दिया. दूसरी बात, वे अपने परिवार की राष्ट्रवादी और सैन्य पृष्ठभूमि का बार-बार जिक्र करते थे- आठ पूर्वजों ने पहले विश्वयुद्ध में, दो ने द्वितीय विश्वयुद्ध में लड़ाई लड़ी और ऑपरेशन ब्लूस्टार में दो भतीजे पारा कमांडो के तौर पर मारे गए. उनके अभियान फौजी शैली में संगठित होते- पेंटिंग ब्रिगेड, पंफलेट ब्रिगेड और भीख मांगने वाला स्क्वाड तक होता, जो दलित बस्तियों में जाकर डिब्बों में रेजगारी के तौर पर चंदा जमा करता था. वे कहते कि पैसा महत्वपूर्ण नहीं है. “एक बार एक स्वीपर ने हमें एक रुपया दिया और उसने कांग्रेस को वोट देने के लिए पेश किए जा रहे हजार रुपये को ठुकरा दिया था”. और तीसरी तथा सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि बहुजन समाज के तंबू को उन्होंने काफी विस्तार दिया, ताकि दूसरे समूह भी इसके नीचे आ सकें. इसलिए उनके नारे थे- ‘वोट हमारा राज तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा’. बाद में उन्हें और मायावती को समझ में आ गया कि सत्ता पाने के लिए मुसलमानों और कुछ ऊंची जातियों को भी जोड़ना पड़ेगा.
इसने उन्हें सत्ता दिलाई. यह कोई आसान खेल नहीं है. लेकिन खेल तो है ही. कांशीराम दलित कौटिल्य सरीखे एक समर्पित राजनीतिक प्रतिभा थे, जिनके साथ मायावती उनकी चंद्रगुप्त सरीखी थीं. क्या जिग्नेश में मुख्यधारा में आने का वह कौशल, प्रतिभा, समर्पण और महत्वाकांक्षा है? हमें अभी यह नहीं पता है लेकिन भाजपा और रूढ़िवादी हिंदू कुलीन तबका उनके कारण अगर चिंता में पड़ गया है, तो यह चिंता बहुत कुछ कहती है.
शेखर गुप्ता दिप्रिंट के एडिटर इन चीफ हैं.