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Friday, March 29, 2024
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निराधार है यह ‘आधारोफोबिया’, सिर्फ ‘चीज और वाइन क्लास’ के लिए चिंता का विषय

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अगर सरकार आप पर नजर रखना चाहे तो उसे ‘आधार’ को आधार बनाने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी. लेकिन गरीबों को अपने अधिकारों के लिए उसका सहारा लेने की जरूरत जरूर पड़ेगी.

आधार/ट्रिब्यून विवाद के दो पहलू हैं. पहला तो यह कि बिना सोचे-समझे एक मूर्खतापूर्ण एफआइआर दर्ज किया गया, जिसमें बाकी लोगों के अलावा ट्रिब्यून अखबार और उसकी रिपोर्टर रचना खैरा के नाम भी दर्ज किए गए, हालांकि उन्हें आरोपी नहीं बनाया गया है. यह एक सर्वशक्तिमान नौकरशाह द्वारा गुस्से में उठाया गया कदम लगता है, जो इसलिए नाराज हो गया कि उसकी सप्ताहांत की छुट्टी का मजा किरकिरा कर दिया गया था. दूसरा पहलू आधार को लेकर खौफ फैलाने से संबंधित है. यह लगभग ऐसा ही है जैसे एस्टेरिक्स कॉमिक्स में एक पात्र गॉल आसमान के गिर पड़ने के डर से हमेशा दहशत में रहता है.

ऊपरी तबके, उच्च वर्ग के शराब-कबाब के शौकीन, सोशल मीडिया के- अधिकांश वामपंथी, और कुछ दक्षिणपंथी- कुलीन तबके के एक्टिविस्टों को लगता है उनकी यह धारणा अंततः सही साबित हुई है कि इस देश से प्लेग के सफाए के बाद अब आधार उसके लिए सबसे शैतानी कहर बनता जा रहा है. वे नहीं चाहेंगे कि एफआइआर और आधार के ‘जोखिमों’ को अलग-अलग मुद्दे के तौर पर देखा जाए. लेकिन मैं यही करने जा रहा हूं, और हे भगवान! आधारोफोबिया से ग्रस्त साइबर योद्धाओं (मैं मनुष्य के लिए कभी ‘ट्रॉल’ शब्द का इस्तेमाल नहीं करता) से मेरी रक्षा करना.

आंदोलनकारियों के लिए भी यह माकूल मौका है. आधार के मामले की अंतिम सुनवाई इसी महीने की 17 तारीख को होने जा रही है. इसलिए इस पर नजर रखने वाले पांच विद्वान जजों को ‘पता होगा’ कि क्या करना है. कोई कसर बाकी न छोड़ते हुए सम्मानित एक्टिविस्टों ने पिछले कुछ सप्ताहों में उतने ही सम्मानित प्रकाशनों में लगातार लेख प्रकाशित करवा डाले हैं. यही नहीं, जजों की खातिर ट्वीटर पर लाखों गंभीर चेतावनियां जारी की जा चुकी हैं.

पहले वाले पहलू को तो आसानी से निबटा लिया गया है. एफआइआर वाले मामले से हुए नुकसान की भरपाई करने की कोशिश में सरकार के आइटी मंत्री ने बयान दे दिया है. सम्मानजनक रास्ता यही होगा कि एफआइआर को संशोधित करके अखबार तथा रिपोर्टर के नाम उसमें से हटा दिए जाएं. उन्हें बाद में गवाही के लिए बुलाया जा सकता है. इसके अलावा जो भी किया जाएगा वह, छापने योग्य शब्दों में कहा जाए तो, मूर्खतापूर्ण होगा.

दूसरा मामला आधार को लेकर खौफ फैलाने का है. सबसे बड़ा डर यह पैदा किया जा रहा है कि यह सरकार को हमारे जीवन के भीतर ताकझांक करने का मौका देगा कि हम कहां जा रहे हैं, क्या खा रहे हैं, किससे मिल रहे हैं, किस होटल में टिक रहे हैं, किस उड़ान से यात्रा कर रहे हैं, हमारे वैचारिक या सेक्स संबंधी रुझान क्या हैं, क्या हमने अपने बॉस या जीवनसाथी को धोखा दिया, अगर धोखा दिया तो किसके साथ या किसके जीवनसाथी के साथ संबंध बनाया, हमारा ब्लडप्रेशर या कोलेस्टरॉल कितना है, हम कुत्ता पालते हैं या बिल्ली और उसे जहरमुक्त करवाया गया है या नहीं और करवाया गया तो किस पशु डॉक्टर से, कि हमारा पालतू जानवर क्या खाता है और किससे डेटिंग कर रहा है, आदि-आदि.

यहां प्रस्तुत हैं वास्तविकताएं, और कुछ बातें जो यह बताएंगी कि यह आधारोफोबिया किस तरह 99.9 प्रतिशत आधारहीन है कि देश में ‘सरकार सब कुछ देख रही है’ वाला निजाम स्थापित हो रहा है.

सभी सरकारें ‘अपने मतलब’ के नागरिकों के बारे में सूचनाओं की भूखी होती हैं और उनका दुरुपयोग करती ही हैं. लेकिन 134 करोड़ भारतीयों पर नजर रखना? कोई भी सरकार कुछ खास तरह के- राजनीति, नौकरशाही, मीडिया, न्याय व्यवस्था से जुड़े लोगों, एक्टिविस्टों और रचनाशील कुलीनों- बारे में सूचनाएं हासिल करना या उन पर नजर रखना चाहेगी. मुझे पक्का विश्वास है कि मैं भी ऐसे लोगों में शामिल हूं, और यह मान कर चलता हूं कि सरकारें मेरे बारे में जो जानना चाहती हैं उन पर नजर रखती हैं.

मैंने ‘सरकारें’ शब्द जानबूझकर इस्तेमाल किया है. सभी सरकारें ऐसा करती हैं. कांग्रेस की सरकारें कोई देवलोक से नहीं उतरी थीं. क्या किसी सरकार को यह सब करने के लिए इस बात की जरूरत पड़ेगी कि मेरे पास आधार कार्ड हो? अगर मैं ऐसा सोचूंगा तो यह मेरी खामख्याली ही होगी. अगर मैं अपने किसी सूत्र को छिपाना चाहूंगा तो मैं बेहद नाकारा पत्रकार हूंगा कि उससे किसी फोन के जरिए बात करूंगा. मैं तो इसके लिए किसी और के फोन का इस्तेमाल करूंगा. यह तो किसी भी पत्रकार की पहली सुरक्षा है. इसी तरह, दूसरे लोगों की सुरक्षा के दूसरे उपाय होंगे.

सम्माननीय जजों पर नजर रखने के लिए क्या सरकार को आधार की जरूरत पड़ेगी? जरा जजों से तो पूछ लीजिए. वर्षों से हरेक कॉलेजियम न्यायपालिका में नियुक्ति के लिए आए हरेक उम्मीदवार के बारे में खुफिया ब्यूरो की रिपोर्ट पढ़ती है. ये खुफिया रिपोर्टें उम्मीदवारों की ‘प्रतिष्ठा’, शुद्ध अफवाहों पर तैयार होती हैं और न्यायपालिका में केरियर बिगाड़ या बना सकती हैं या उसके स्तर को प्रभावित कर सकती हैं. इन्हें आधार की जरूरत नहीं पड़ी.

और बड़े नौकरशाह? सरकार ने उनकी प्रतिष्ठा की जांच के लिए जो ‘360 डिग्री’ व्यवस्था बनाई है वह क्या है? इसका ताल्लुक इस बात से है कि लोग अमुक-अमुक के बारे में क्या बातें करते हैं, और यह जानने से है कि हम तय कर सकें कि उसे सचिव के पद पर प्रोमोशन दिया जाए या नहीं. ये सब सुनी-सुनाई बातें होती हैं, जिनमें से कुछ पार्टी या आरएसएस कार्यकर्ताओं की मार्फत आएंगी. क्या इनके लिए आधार की जरूरत है?

एक्टिविस्टों का क्या? क्या आधार ने सरकार को तीस्ता सेतलवाद के क्रेडिट कार्ड बिलों को लेकर कीचड़ उछालने में मदद की? अंग्रेजों के जमाने से स्थानीय पुलिस की स्पेशल ब्रांच हर शाम अपने इलाके के होटलों के रजिस्टर जांच करती रही है. एक अहले सुबह महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री सुशील कुमार शिंदे मुंबई के गेटवे ऑफ इंडिया पर मेरे टीवी कार्यक्रम ‘वाक द टॉक’ के लिए रेकॉर्डिंग करवाने के बाद मुझे नाश्ता कराने के लिए ताजमहल होटल कॉफी शॉप ले गए थे और होटल के रिसेप्शन की ओर नजर डालते हुए कहा था कि “मैं जब स्पेशल ब्रांच में दारोगा था, तब हर दिन गेस्ट रजिस्टर की नकल लेने के लिए यहां आता था”.

यानी अगर आप दिलचस्प काम करते रहे हैं और ऐसे शख्स हैं जिसमें सरकार की दिलचस्पी हो सकती है, तो पूरी संभावना है कि वे आपके बारे में पहले से ही इतना कुछ जानती है जितना आप नहीं चाहते होंगे. आपका आधार कार्ड न होने से फर्क नहीं पड़ता.

हकीकत यह है कि हर बार जब आप क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करते हैं, किसी होटल में ठहरने के लिए पहुंचते हैं, हवाई टिकट लेकर पीएनआर हासिल करते हैं, बैंक से लेनदेन करते हैं, फोन करते हैं, टैक्स जमा करते हैं, एसएमएस करते हैं, कुछ भी लिखते/करते/बोलते हैं जो सर्वर के जरिए गुजरता है, कोई फिल्म देखते हैं (अपने या किसी के बेडरूम में नेटफ्लिक्स पर) तब हर बार आप एक अमिट सुराग छोड़ते हैं. हरेक पीएनआर से सरकार यह पता लगा सकती है कि कम-से-कम पिछले 7-8 साल में आपने कौन-कौन-सी फ्लाइट से यात्रा की है. यह 9/11 कांड के बाद की दुनिया का और 26/11 के बाद के भारत की हकीकत है, जो आतंकवाद को लेकर बेइंतिहा दहशत में है. इस सबके बाद भी आप सचमुच प्राइवेसी और गुमनामी चाहते हैं तो मालदिव के 500 निर्जन द्वीपों में से किसी एक में जाकर बस जाइए. और जरा जल्दी कीजिए. पता नहीं कितनी जल्दी ये द्वीप धरती के तापमान में बढ़ोतरी (ग्लोबल वार्मिंग) के कारण समुद्र में समा जाएं या चीन वहां अपना नौसैनिक अड्डा ही बना ले.

बात इतनी-सी है कि सरकार अगर किसी नागरिक पर नजर रखना चाहे तो ऐसा बहुत आसानी से कर सकती है. लेकिन सरकार को इसकी जरूरत नहीं है, न ही वह उन 119 करोड़ नागरिकों पर नजर रख सकती है जिनका आधार कार्ड बन गया है और बाकी लोगों का कार्ड ढाई लाख प्रतिदिन की गति से बन रहा है.

दहशतगर्दी इस हद तक पहुंच गई है कि जूलियन असांजे जैसे शून्यवादी (जो यह मानते हैं कि चीन और रूस में अमेरिका और भारत की तुलना में ज्यादा लोकतंत्र है) और एडवर्ड स्नोडेन के बयानों का हवाला दिया जाता है. यह मान लेना संवेदनशील मामला है कि हमारे जज उन लोगों के प्रभाव में आएंगे, जो अपने ही लोकतांत्रिक देश में न्यायिक जांच से बचने के लिए छिपते रहे हैं. न ही मैं यह यकीन कर सकता हूं कि हमारे जज ब्रिटिश टीवी के उस सीरियल ‘ब्लैक मिरर’ को देखते हैं (न मैं देखता हूं) जिसमें तकनीक से नफरत दिखाई जाती है. और हमारे देश के गरीब लोगों को इन सबसे कोई मतलब नहीं है. वे न तो ‘ब्लैक मिरर’ देखते हैं और न ‘वीपन्स ऑफ मास डिस्ट्रक्शन’ पढ़ते हैं.

आधार का तीन प्रकार से विरोध किया जा रहा है.

पहला विरोध उन लोगों की ओर से हो रहा है, जो राज्यतंत्र के विचार को ही स्वीकार नहीं करते. ऐसे लोगों का हम कुछ नहीं कर सकते सिवा यह कहने के कि उन्हें खुश होना चाहिए कि वे इक्वाडोर के दूतावास में छिपने या महान गांधीवादी पुतिन का मेहमान बनने की बजाय अपने देश में वे सब कुछ कह सकते हैं जो वे कहना चाहते हैं.

विरोध करने वाले दूसरे लोग वे हैं जिन्हें प्राइवेसी के भंग होने का डर है और जिनकी चिंताओं के बारे में विस्तार से बता चुका हूं.

और तीसरे प्रकार के लोग वे नेकनीयत एक्टिविस्ट हैं जो गरीबी का विरोध करते हैं और जिन्हें डर है कि सब्सीडी और राहतों को आधार से जोड़ने से गरीबों का नुकसान होगा. वे दुरुपयोग, घपलों या सेवाओं में रुकावट के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं. पहले प्रकार के लोगों के विपरीत ये लोग राज्यतंत्र को चाहते हैं, खासकर संवेदनशील तंत्र को. आप गरीबों को तकनीक के भरोसे कैसे छोड़ सकते हैं? उनके लिए दुखद तथ्य यह है कि गरीब अब आगे बढ़ चुके हैं. 10 करोड़ से ज्यादा गरीबों ने आधार से जुड़ा एलपीजी कनेक्शन ले लिया है. गरीबों के आधार से जुड़े बैंक खातों में 75,000 करोड़ रुपये जमा करवाए जा चुके हैं. इन खाताधारकों से जरा यह कहकर तो देखिए कि आधार एक अभिशाप है.

ऐसे लोगों को जानना चाहिए कि गरीब भारतीयों के जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप अपनी पहचान से वंचित होना है. हर बार किसी गरीब को सरकार से कुछ चाहिए तो उसे अपनी पहचान का प्रमाणपत्र लेने के लिए किसी छोटे नौकरशाह, सरपंच या विधायक के दरवाजे पर जाना पड़ता है. टकराव और मनमानी तो इस व्यवस्था में निहित है. आधार से मिली पहचान मुक्ति भी देती है और ताकत भी. वरना इसे पा चुके 119 करोड़ लोगों में से लाखों लोग अपनी मुक्ति के महान संघर्ष के लिए सड़कं पर निकल कर विरोध प्रदर्शन कर रहे होते और यह काम सोशल मीडिया के 3229 (लगभग इतने) कुलीनों के भरोसे नहीं छोड़ देते. आज गरीब लोग विरोध प्रदर्शन क्यों नहीं कर रहे हैं? या अपने आधार कार्ड को खारिज क्यों नहीं कर रहे हैं? जरा उनसे यह कार्ड छीन कर तो देखिए.

एक खौफजदा व्यक्ति इस सब पर क्या प्रतिक्रिया करेगा? वह तो यही कहेगा कि अरे ये गंवार गांववालों इनको भला क्या पता? हमें उनकी रक्षा करनी है क्योंकि हमें ज्यादा जानकारी है. हमने महान आइवी लीग या किसी ज्यादा क्रांतिकारी भारतीय परिसर में फैन्सी पढ़ाई जो की है. हम उनसे ज्यादा जानते हैं, और हमें उनकी रक्षा करनी है.

इसलिए, इस विशिष्ट मगर अनुग्रही जमात के लिए मेरा एक सुझाव है. यूट्यूब पर जाइए, ‘सगीना’ फिल्म में दिलीप कुमार पर फिल्माया गया गाना ‘साला मैं तो साहब बन गया….’ देखिए. ‘तुम लंगोटी वाला ना बदला है न बदलेगा/ तुम सब साला लोग का किस्मत हम साला बदलेगा’ लाइन को बार-बार सुनिए. हैरत की बात है कि मजरूह सुलतानपुरी ने आप लोगों के लिए यह गाना 1974 में ही कैसे लिख दिया था.

पुनश्चः: आधार-विरोध अब बेमानी हो गया है. सुप्रीम कोर्ट ने भले कह दिया हो कि सरकारी सेवाएं पाने के लिए इसकी जरूरत नहीं है, एक्टिविस्टों के मुकाबले संख्या में ज्यादा, गरीब लोग इसका उपयोग छोड़ेंगे नहीं. निजता की रक्षा के लिए कानून तो चाहिए. आधार हो या न हो. दहशत में पड़े अमीर लोग हवाई यात्रा के लिए कागजी टिकट भले लेने लगें, उसमें भी पीएनआर तो होगा ही और इसके डेटा दुनियाभर में उड्डयन से जुड़े सुरक्षा तंत्र और आतंकवाद विरोधी संगठनों की पहुंच में होंगे. उन्हें बस एक बटन दबाने की जरूरत होगी.

खुलासा: नंदन नीलेकणी आधार के संस्थापक हैं और ‘दिप्रिंट’ के प्रतिष्ठित संस्थापक-निवेशक हैं. इसमें निवेश करने वालों की सूची देंखे.

शेखर गुप्ता दिप्रिंट के एडिटर इन चीफ हैं.

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