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Thursday, March 28, 2024
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इतने बड़े स्तर पर कीमतों के नियंत्रण से अफ़सरशाही में होगा इजाफा, बढ़ेगा भ्रष्टाचार

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कर्ज़ माफी, फसल के सही दाम और केंद्र द्वारा उनसे किए गए वादों को पूरा करने की मांग के साथ दिल्ली में सोमवार को हजारों किसानों ने जुलूस निकाला। प्रोफेसर एम एस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग के सुझावों के आधार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014, चुनाव के दौरान उत्पादन की लागत के ऊपर न्यूनतम 50 फीसदी मुनाफा दिलवाने का वादा किया था। 2015 में केंद्र ने यह कहते हुए इस प्रस्ताव को किनारे कर दिया कि यह बाज़ार के अनुरूप नहीं है।

द प्रिंट का सवाल: क्या न्यूनतम समर्थन मूल्य पर स्वामिनाथन कमेटी के सुझाव किसानों की समस्या का व्यावहारिक हल हैं?

हरित क्रांति के समय ही सरकार ने भांप लिया था कि गेंहू के अत्यधिक उत्पादन से बाज़ार भाव औंधे मुह गिर सकते हैं। इसलिए, 1965 में भारतीय खाद्य निगम और कृषि मूल्य आयोग की स्थापना की गई।

कृषि उत्पाद सीज़न खत्म हो जाने के बाद बाज़ार में आते हैं और आमतौर पर किसान उपज परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने और अगली फसल की तैयारी के लिए बेचते हैं। इस अवधि के दौरान कीमत अपने न्यूनतम स्तर पर होती है। इसलिए, केंद्र सरकार ने कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) के सुझावों के आधार पर 24 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया। इसके लिए कृषि विभाग ने कृषि विश्वविद्यालयों से संबद्ध क्षेत्रीय यूनिट व अन्य की मदद से डेटा जुटाया।

आमतौर पर यह डेटा दो साल पुराना होता है और वर्तमान लागत निकालने के लिए सीएसीपी द्वारा इसका विस्तार किया जाता है। क्योंकि अलग-अलग राज्यों के अनुसार लागत भिन्न होती है, सीएसीपी इसका औसत निकालता है। हालांकि यह समझना जरूरी है कि लागत ही सीएसीपी का इकलौता मानदंड नहीं है। यह मांग पक्ष और वैश्विक मूल्यों का भी ध्यान रखता है। खैर, सरकार द्वारा तय किया समर्थन मूल्य जमीनी स्तर पर और वह भी कुछ राज्यों में ही मुख्यरूप से सिर्फ गेहूँ और धान में लागू हो पाया है। सिर्फ गन्ने के मामले में ही किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के समान कीमत मिल पाती है जो निष्पक्ष और फायदमेंट कीमत है। कुछ वर्षों में अन्य फसलें जैसे कपास और मूंगफली को भी न्यूनतम समर्थन मूल्यों पर खरीदी जाने लगीं। नीति आयोग के 2016 के मूल्यांकन के अनुसार 81 फीसदी किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य से अवगत हैं।

सरकार ने राष्ट्रीय किसान आयोग (स्वामीनाथन आयोग) के सुझावों पर आधारित न्यूनतम समर्थन मूल्य को लगात से 50 फीसदी ज्यादा रखने की किसानों की मांग को अभी तक स्वीकार नहीं किया है। न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ने से सरकार इतनी ज्यादा कीमतों पर उपज खरीदने की स्थिति में नहीं होगी क्योंकि ये बाज़ार भाव से कहीं ज्यादा है। उदाहरण के लिए यदि आयोग का फॉर्मूला लागू किया जाता है तो मूंगफली का समर्थन मूल्य रु.2,226  प्रति क्विंटल हो जाएगा, जो वर्तमान में रु.1,550 है। यानी करीब 43 फीसदी ज्यादा। खरीफ की 2017-18 की किसी भी फसल को लागत के ऊपर 50 फीसदी का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिला है। रागी, ज्वार, मूंग आदि फसलों को तो उनकी लागत के बारबर भी न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिला।

इतने बड़े स्तर पर समर्थन मूल्य बढ़ाने से देश में कई खाद्य पदार्थों की कीमत अंतर्राष्ट्रीय कीमतों से भी ज़्यादा हो जाएगी है। सरकार से सभी फसलों को इतनी ऊंचे दामों पर खरीदने की अपेक्षा करना अव्यावहारिक होगा।

इतने बड़े पैमाने पर मूल्यों पर नियंत्रण के लिए प्रत्येक मंडी स्तर पर अफसरशाहों के हस्तक्षेप की जरूरत होगी, जो हर जगह में भ्रष्टाचार का को जन्म देगा। अंततः कृषि व्यापार को पारदर्शी वातावरण में काम करने के लायक बनाना होगा, जिसमें निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा हो। कृषि को मुनाफे का व्यापार बनाने के लिए भले ही कितने अन्य नियम बनाने पड़ जाएं, लेकिन स्वामिनाथन का फॉर्मूला इन समस्याओं का संपूर्ण हल बिल्कुल नहीं है।

सरकार ने समय-समय पर खाद्य पदार्थों की खरीदी, भंडारण, व्यापार, निर्यात और आयात पर कई तरह के प्रतिबंध लगाए, जो किसानों को कम कीमत मिलने का कारण हैं। कुछ राज्यों में टैक्स 14 फीसदी से ज्यादा है। समय की जरूरत है कि कृषि व्यापार के लिए दस वर्षीय पॉलिसी बनाई जाए ताकि कृषि उत्पादों की मार्केटिंग और भंडारण के लिए सही ढांचा तैयार किया जा सके।

सिराज हुसैन आईसीअारआईईआर के विज़िटिंग सीनियर फेलो हैं

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