scorecardresearch
Friday, April 19, 2024
Support Our Journalism
HomeSG राष्ट्र हितवास्तविक उदारवाद की समुचित जगह!

वास्तविक उदारवाद की समुचित जगह!

Follow Us :
Text Size:

कनाडा के युवा प्रधानमंत्री और वैश्विक स्तर पर उदारता का चेहरा बन चुके जस्टिन ट्रूडो ने सबसे पहले ‘हाइफनेटेड लिबरल’ शब्द को लोकप्रिय बनाया। उस वक्त उनका तात्पर्य अपनी पार्टी के सदस्यों से था जो कई धड़ों में बंटे हुए थे। यह बंटवारा मुख्य रूप से जीन क्रिटीन और पॉल मार्टिन के समर्थकों के रूप में था। ऐसे में भारत के घरेलू लोकतांत्रिक परिदृश्य में इसके इस्तेमाल का दावा मैं संभालता हूं। अगर उदारवाद का अर्थ विचारों, मुद्दों, खुले दिमाग आदि से है तो क्या इन पर हाइफनेटेड (हाइफन के चिह्नï के जरिये अलग-अलग)होने का आरोप ठहरता है?

हमारे यहां वाम और दक्षिण दो व्यापक चयन हैं जबकि मध्य मार्ग को उदासीन और अनिर्णय वाला माना जाता है। भारत में उदारवाद को नेहरू के समाजवाद, इंदिरा गांधी के उदारवाद और दीन दयाल उपाध्याय के भगवा उदारवाद के रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है। इसके अलावा भी चुनने के लिए कई विकल्प हैं। शुरुआत करें वाम से तो व्यापक सम्मान वाले समाज विज्ञानी पार्थ चटर्जी जिन्होंने जनरल रावत की तुलना जनरल डायर से की और बाद में उदारवादी प्रतिबद्घता की परीक्षा लेते हुए कह डाला कि पूर्वोत्तर और कश्मीर भारत के औपनिवेशिक कब्जे में हैं। यह बात अलग है कि हमारा संविधान इनकी अलग ही व्याख्या देता है।

दक्षिण के धड़े की बात करें तो आरएसएस के तरुण विजय हैं जो मंदिरों में दलितों की समानता के लिए लड़ते हैं। दिल्ली गोल्फ क्लब का लाइसेंस खत्म कराना चाहते हैं और उसे पूर्वोत्तर के एक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित देखना चाहते हैं क्योंकि वहां मेघालय की एक जनजाति का नस्ली अपमान किया गया। जबकि उनकी खुद की विचारधारा उन्हीं पूर्वोत्तर के लोगों को उनके आम खानपान तक से दूर करना चाहती है और चमड़े से जुड़ी दलितों की आजीविका छीनना चाहती है। अधिक समकालीन उदाहरण चुनें तो आपका आकलन इस बात पर भी हो सकता है कि आप जंतर मंतर पर विरोध करने पहुंचे या नहीं। या आपने नॉटमाईनेम हैशटैग का प्रयोग किया या नहीं। मैं तो इन दोनों मानकों पर विफल हूं।

हम पर लेबल लगा दिए गए हैं। अगर आप अपने दिमाग का इस्तेमाल करेंगे तो आपको थाली का बैगन करार दिया जाएगा यानी निष्ठïएं बदलते रहने वाला। अगर आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एयर इंडिया को बेचने के कदम का स्वागत करेंगे तो आपको वाम धड़े से यह आरोप सुनना होगा और अगर आप सेना के मेजर द्वारा मानव कवच का विरोध करेंगे तो दक्षिणपंथ आपके सामने यह सवाल दागेगा। भले ही आप कश्मीर पर भारत के दावे का कितना भी समर्थन क्यों न करते आए हों। आप भारत के साथ होकर भारतीय सेना के खिलाफ कैसे हो सकते हैं? अगर आप रावत और डायर की तुलना पर सवाल करते हैं तो मध्य मार्गी भी आप पर सवाल उठा सकते हैं। वह कह सकते हैं कि आप इतने विद्वान और प्रतिष्ठित लेखक पर सवाल कैसे उठा सकते हैं?

उपरोक्त तीनों तरह के सवालों के जवाब आसान हैं। पहली बात, दो गलतियां मिलकर एक सही नहीं बन जातीं, एक दर्जन गलतियां मिलकर भी एक सही को नकार नहीं सकतीं। दूसरी बात, अपने देश और सेना का समर्थन करने का अर्थ यह नहीं है कि आप असंवैधानिक और सैन्य दृष्टि से अनैतिक कदमों का समर्थन करें। जबकि ऐसा हजारों अधिकारियों में से इक्कादुक्का ही करते हैं। तीसरी बात, तथ्यों से प्रतिष्ठï का क्या लेनादेना? अगर बौद्घिक प्रतिष्ठï का अर्थ शेष सबकी जुबान बंद करना हो तो जाहिर है यह उदारवादी रुख तो नहीं है। इन मसलों पर दुनिया भर में ढेर सारी बातें लिखी जा चुकी हैं। ट्रंप का उदय, ब्रेक्सिट और ली पेन के आने का डर, ये सभी विरोध की कट्टरता दिखाते हैं। यहां तक कि बर्नी सैंडर्स और जेरेमी कोर्बिन में मोदी और शाह जैसी समानता देखी जाने लगी। इन हालात में एक तरफ जेएनयू के छात्रों पर ‘भारत तेरे टुकड़े’ के नारे लगाने के आरोप में देशद्रोह का मामला दर्ज हुआ, वहीं दूसरी ओर एक पक्ष अपने बचाव में अपने परिसर में बना रहता है। परिणाम: पहले वालों की जीत होती है जबकि उदारवादी भारतीय परास्त हो जाते हैं। ये उदारवादी भारतीय व्यक्तिगत आजादी में भरोसा करते हैं, नारे लगाने और उनका विरोध करने की आजादी। इतना ही नहीं इन स्वतंत्रताओं को तभी बचाया जा सकता है जबकि हमारा गणतंत्र और संविधान अक्षुण्ण रहे। इतना ही नहीं इन दोनों के बचाव के लिए ताकत का इस्तेमाल करना भी एक संवैधानिक शासन का दायित्व है। जाहिर है ऐसे में किसी माओवादी ठिकाने को नष्ट करने की सराहना की जानी चाहिए जैसा कि ओडिशा में गत वर्ष हुआ। ठीक वैसे ही जैसे बुरहान वानी के मारे जाने की। लेकिन निहत्थे कश्मीरियों को मानव कवच के रूप में इस्तेमाल किए जाने का विरोध होगा। वैसे ही जैसे नारे लगाने वालों पर देशद्रोह का मामला चलाने की।

हाल के दिनों में ऐसे कई लेख आए हैं जो उदारवाद के अंत की बात कहते हैं। फरीद जकारिया ने फॉरेन अफेयर्स में ‘द राइज ऑफ इलिबरल डेमोक्रेसी’ पर लेख लिखा और द फाइनैंशियल टाइम्स के पूर्व भारत संवाददाता एडवर्ड लूस ने ‘द रिट्रीट ऑफ वेस्टर्न लिबरलिज्म’ नामक लेख लिखा और विश्लेषण किया कि कौन सी चीजों ने इसे भड़काया। इसमें कहा गया कि शीतयुद्घ के खात्मे के बाद से करीब दो दर्जन लोकतांत्रिक देश विफल हो गए जिनमें रूस भी शामिल है। तुर्की भी उसी दिशा में अग्रसर है। अमेरिकी मीडिया सिद्घांतकार डगलस रश्कॉफ कह चुके हैं कि इसके लिए हमारे समय की धैर्यहीनता जिम्मेदार है। इस दौर में ध्यान देने के लिए वक्त कम है और पारंपरिक धारणाएं तेजी से ध्वस्त हो रही हैं। हम सब केवल वर्तमान में जी रहे हैं। हम एक भंवर में फंसे हुए हैं जहां हमारी सवाल पूछने या चयन करने की क्षमता खो सी गई है। ऐसे समय में सबसे आसान है खुद को सहज रखना और विरोधियों पर टूट पडऩा।

एमैनुअल मैक्रों को जैसी जबरदस्त जीत मिली वह हमें दिखाती है कि इन सबके बीच में खुली जगह कितनी मानीखेज हो सकती है। बशर्ते कि हममें ऐसा करने की दृढ़ता हो। ऐसे समय में जबकि द गार्जियन (वाम उदारवाद का अंतिम प्रहरी) जेरेमी कोर्बिन की सफलता जैसी छोटी-छोटी जीतों का जश्न मना रहा है, मैक्रों की जीत, ट्रंप की घटती लोकप्रियता, एंगेला मर्केल कमा मजबूत होना और ब्रेक्सिट को लेकर पछतावा आदि जैसी घटनाएं बताती हैं कि अभी बहुत सारी गुंजाइश बाकी है जिसका फायदा उठाया जा सकता है।

मैक्रों के आगमन के बाद हमारा शब्दकोष मजबूत हुआ है। इसमें कट्टïर मध्यमार्ग, मजबूत मध्यमार्ग आदि शब्द शामिल हुए हैं। चूंकि भारतीय बौद्घिक जगत पारंपरिक रूप से पश्चिम से सबक लेता है, खासतौर पर यूरोप से। ऐसे में नई बहस को इन बातों के खांचे में सीमित रखना आकर्षक लग सकता है। उस स्थिति में बहस भी उन्हीं दायरों में सिमटी रहेगी। कई बार ऐसा होता है कि बुद्घिमता अस्वाभाविक जगहों पर नजर आती है। मसलन उस कॉपी लेखक का दिमाग जिसने ई-कॉमर्स वेबसाइट स्नैपडील की टैग लाइन लिखी- अनबॉक्स जिंदगी। हम उदार भारतीयों को भी ‘अनबॉक्स’ होने यानी एक तय खांचे से बाहर निकलने की आवश्यकता है। समाज और अर्थव्यवस्था को लेकर उदारता, संवैधानिक पवित्रता को लेकर समझौता न करना और राष्ट्रीय सुरक्षा, माओवादी या आतंकी हमले के लिए कोई बहाना न सुनना, हमें इन सब बातों पर एक उदार विचार खड़ा करना होगा। अगर ऐसा हुआ तो जंतर मंतर पर जाने या हैशटैग का सहारा लेने की आवश्यकता किसी को नहीं होगी। क्या मैं इस बारे में कुछ सुझा सकता हूं। वाम धड़े के लोग सोचते हैं मैं दक्षिणपंथी हूं। दक्षिण के लोग मुझे वामपंथी समझते हैं। इसलिए दोनों ही मेरे पीछे प

Subscribe to our channels on YouTube, Telegram & WhatsApp

Support Our Journalism

India needs fair, non-hyphenated and questioning journalism, packed with on-ground reporting. ThePrint – with exceptional reporters, columnists and editors – is doing just that.

Sustaining this needs support from wonderful readers like you.

Whether you live in India or overseas, you can take a paid subscription by clicking here.

Support Our Journalism

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular