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Thursday, March 28, 2024
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हिंदुत्ववादियों ने विदेशी पत्रकारों तक को नहीं छोड़ा: न्यूयॉर्क टाइम्स के पत्रकार की आपबीती

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मैंने चीखना शुरू कर दिया था कि अचानक मुझ पर पीछे से लाठी पड़ी. मैं ज़मीन पर गिर पड़ा. मेरी नोटबुक मेरे हाथ से छीन ली गई. सैंडल पहने एक पांव ने मेरे चश्मे को चकनाचूर कर दिया

सत्तर के दशक में जिसे मद्रास के नाम से जाना जाता था, वहां एक शोधार्थी के तौर पर कई लोगों से बातचीत में जो एक चीज़ उभरी वह यह थी कि राजनीतिक मकसदों को पूरा करने के लिए धार्मिक उभारों की ताकत को स्पष्ट तौर पर मान्य किया जा रहा है.

यह जो सबक मैंने मद्रास में सीखा था, वह दो दशक बाद दिल्ली में न्यूयॉर्क टाइम्स के संवाददाता के तौर पर मुझे बार-बार याद आता है, वह भी अब राष्ट्रीय परिदृश्य के लिए. 1992 के खत्म होते-होते तक भाजपा क्षेत्रीय चुनावों में जीत के रथ पर सवार होकर लड़खड़ाती कांग्रेस सरकार अौर प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव की गद्दी पर नजर टिका चुकी थी. उसकी रणनीति स्पष्ट थी- बहुसंख्यक हिंदुअों की धार्मिक भावनाअों की आग को भड़काअो अौर इस तरह हासिल हुई लोकप्रियता की लहर पर सवार होकर सत्ता हथिया लो. इस आग के लिए चिंगारी क्या हो सकती है? मुसलमानों को हासिल कथित विशेषाधिकारों की खुल कर निंदा करना, अौर 16वीं सदी के मुगल हमलावरों के हाथों मिली ऐतिहासिक नाइंसाफी के प्रति असंतोष को भड़काना.

इस ऐतिहासिक अपमान का सबसे सटीक प्रतीक अयोध्या में खड़ी तीन गुम्बदों वाली छोटी-सी बाबरी मस्जिद से बेहतर भला क्या हो सकता था? इस मस्जिद को न केवल प्रथम मुगल बादशाह बाबर ने बनवाया था बल्कि यह ठीक उस जगह पर खड़ी थी जहां, हिंदुअों की मान्यता के मुताबिक, पांच हजार साल पहले भगवान राम का जन्म हुआ था. ऐसी मस्जिद को तो गिरना ही चाहिए! हिंदुअों के राजनीतिक तथा धार्मिक नेताअों ने इसका विध्वंस करके वहां पर भव्य राम मंदिर बनवाने का संकल्प ले लिया. इस काम की शुरुआत 6 दिसंबर 1992 की दोपहर 12 बजकर 26 मिनट पर कर दी गई.

उस दिन सवेरे ही मैं अपने साथी, वॉयस ऑफ अमेरिका के भारत स्थित संवाददाता पीटर हाइनलीन के साथ कार में अयोध्या पहुंचा. गाड़ी धीमी रफ्तार से चल रही थी. डामर की संकरी सड़क के दोनों अोर उग्र युवाअों की भीड़ जमा थी. उनके माथे पर भगवा पट्टी बंधी थी, वे बैनर लहरा रहे थे, मुट्ठियां हवा में लहराकर वे नारे लगा रहे थे. हमारी कार का हाॅर्न लगातार बज रहा था मगर यह बेकार था. हम कार से उतर गए अौर आगे का रास्ता तय करने के लिए पैदल चल पड़े. खुद को कारसेवक कहने वाले ये युवा हजारों की संख्या में उस टीले को घेरे हुए थे जिस पर धूल के गुबार में डूबी वह मस्जिद खड़ी थी. वे जय श्रीराम के नारे लगा रहे थे.

राजनीतिक अौर धार्मिक, दोनों तरह के हिंदुत्ववादी नेता (हालांकि दोनों में फर्क करना प्रायः मुश्किल था) भीड़ को अपने तल्ख भाषण से उकसा रहे थे अौर देश के मुस्लिम अल्पसंख्यकों की निंदा करते हुए हिंदू भावनाअों तथा अपेक्षाअों को सही ठहरा रहे थे. हिंदू ज्योतिषियों द्वारा तय समय आते ही युवाअों ने टीले पर चढ़ाई शुरू कर दी. नारों का शोर अौर तेज हो गया. अचानक कहीं से हथौड़े वगैरह प्रकट हो गए. कई जोशीले युवाओं ने स्टील के पाइप अौर छड़ आदि निकाल लिये. बड़े-बड़े उपकरण उन सबके हाथों में पहुंचने लगे, जिन्हें जरूरत थी. मैं उन उत्साही युवकों में से एक से बात करने लगा. उसने कहा, ‘‘मैं तो जान दे दूंगा. अगर हम यहां मंदिर नहीं बना पाते तो जिंदा रहने का कोई मतलब नहीं है. अगर इस ढांचे को तोड़ने के दौरान मेरी जान चली गई, तो कोई परवाह नहीं है.’’

तभी वह शुभ मुहुर्त आ पहुंचा. भीड़ की तरफ से जबरदस्त हुंकार उभरी. कुछ युवक ‘एटम बम… एटम बम’ चीखते हुए उन्माद में डूबी भीड़ में घुस गए. पुलिस के घेरे को तोड़ते हुए वे मस्जिद के गिर्द बनी कमजोर-सी बाड़ को गिराते हुए आगे बढ़ गए. देखते-देखते ही माथे पर भगवा पट्टी बांधे एक शख्स एक गुंबद पर चढ़ गया अौर उस पर भारी हथौड़ा चलाने लगा. उसके हर प्रहार पर नीचे खड़ी भीड़ की गर्जन सुनाई देने लगी.

तभी अचानक मानो किसी इशारे पर भीड़ का ध्यान मस्जिद से हट कर वहां खड़े चंद विदेशी पत्रकरों पर चला गया. मैंने देखा कि लॉस एंजिलिस टाइम्स के मेरे एक पत्रकार साथी को परेशान किया जा रहा है. मैंने बीचबचाव की कोशिश की. मैं चीखने लगा, लेकिन अचानक पीछे से मुझ पर लाठी से वार किया गया. मैं ज़मीन पर गिर पड़ा. मेरी नोटबुक मेरे हाथ से छीन ली गई. मेरा चश्मा छिटककर गिर गया, अौर सैंडल वाले एक पैर ने उसे चकनाचूर कर दिया. मैं कसी तरह उठ कर खड़ा हुआ.

मैं पास के एक छोटे-से प्रांगण में पहुंचा. वहां पीटर लहूलुहान पड़ा था, उसका सिर फोड़ दिया गया था. वह दर्द से कराह रहा था, उसे उपचार की जरूरत थी. हमने किसी तरह उसका खून पोछा. संयोग से हमें अपनी कार तथा ड्राइवर मिल गया. पास के फैजाबाद में एक कामचलाऊ क्लीनिक में उपचार के बाद हमें लग गया कि हमें तुरंत दिल्ली की उड़ान पकड़ लेनी चाहिए ताकि पीटर को टांके लगवाए जा सकें अौर हम अपनी खबर भी भेज सकें.

उस दिसंबर के उस दिन हिंदुत्ववादियों के हथौड़ें ने भारतीय जनजीवन का एक नया अध्याय शुरू कर दिया था. भारत की आज़ादी के बाद यहां पहली बार मस्जिद तोड़ी गई थी. बाबरी मस्जिद विध्वंस हिंदू राष्ट्रवाद के प्रभुत्व का प्रतीक बन गया. देश में धर्मनिरपेक्षता के अवशेषों को ढूंढना भी मुश्किल था. अब 21वीं सदी में देखने वाली बात यह नहीं होगी कि 16वीं सदी की एक मस्जिद किस तरह मजहबी हिंसा का शिकार हो गई बल्कि यह होगी कि क्या भारत के लोकतांत्रिक शासन के धर्मनिरपेक्ष संस्थान तथा कानून का शासन इतने मजबूत साबित होगे कि मज़हबी कट्टरवाद तथा असहिष्णुता के हमलों को बेअसर कर सके? इस बारे में कुछ फैसला कर पाना मुश्किल है.

एडवर्ड ए. गरगन नब्बे के दशक में न्यूयॉर्क टाइम्स के दक्षिण एशिया ब्यूरो के प्रमुख थे. वे अफ्रीका, मध्य-पूर्व, पूर्वी एशिया से भी रिपोर्टिंग कर चुके हैं. अब वे अपना समय कभी चीन, तो कभी मार्था के अंगूरों के बाग में बिताते हैं.

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