अरेंज्ड मैरिज की गहराई में छुपी खाप मानसिकता
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अरेंज्ड मैरिज की गहराई में छुपी खाप मानसिकता

अरेंज्ड मैरिज की मानसिकता, जो जाति, गोत्र और धर्म की पवित्रता की धारणा को बचाए रखने की गारंटी देती है, अंतरधार्मिक विवाह के विरुद्ध हिंसा और असहिष्णुता को बढ़ावा देती है. राजस्थान में हत्याकांड के वीडियो, हदिया प्रकरण, राहुल गांधी के धर्म को लेकर उभरे विवादों ने अंतरधार्मिक विवाहों के प्रति हमारी सामूहिक चिंता को […]

Rahul Gandhi, Hadiya and a screengrab of the Rajasthan murder video

Rahul Gandhi, Hadiya and a screengrab of the Rajasthan murder video

अरेंज्ड मैरिज की मानसिकता, जो जाति, गोत्र और धर्म की पवित्रता की धारणा को बचाए रखने की गारंटी देती है, अंतरधार्मिक विवाह के विरुद्ध हिंसा और असहिष्णुता को बढ़ावा देती है.

राजस्थान में हत्याकांड के वीडियो, हदिया प्रकरण, राहुल गांधी के धर्म को लेकर उभरे विवादों ने अंतरधार्मिक विवाहों के प्रति हमारी सामूहिक चिंता को उभार दिया है. अगर आप राजस्थान में हुई हत्या के वीडियो को देखकर स्तब्ध हैं, तो हदिया प्रकरण या सोमनाथ मंदिर के आगंतुक रजिस्टर में राहुल के धर्म को लेकर की गई प्रविष्टि भी उसी श्रेणी में हैं. ये सारे प्रकरण अंतरधार्मिक विवाहों को लेकर हमारी सामूहिक चिंताओं को उभारते हैं.

यह केवल भाजपा और आरएसएस के एजेंडा का मामला नहीं है, हालांकि इन दिनों हर बुरी बात के लिए 2014 के बाद बने माहौल को दोषी ठहराने का फैशन चल पड़ा है. यह मामला उससे कहीं गहरा है.

हिंसा और असहिष्णुता के पीछे वह मानसिकता काम करती है, जो जाति, गोत्र् और धर्म की पवित्रता की धारणा को बचाए रखना चाहती है. अरेंज्ड यानी आपसी सहमति से होने वाले विवाह की हमारी इसी प्रथा की गारंटी देती है. हरेक परिवार, जो अपने बच्चों के लिए बेहद सावधानी से चुन कर अपने ही धर्म, अपनी ही जाति में विवाह तय करता है, इस असहिष्णुता को किसी-न-किसी रूप में आगे बढ़ाता है.

भारत में अंतरजातीय विवाह के लिए दो सदियों से राजनीतिक आंदोलन धीरे-धीरे चलाया जाता रहा है लेकिन इसका अपेक्षित परिणाम नहीं मिला है. और अंतरधार्मिक विवाह के लिए न कोई राजनीतिक माहौल है, और न सांस्कृतिक माहौल. पिछली दो सदियों से बी.आर. आंबेडकर, पेरियार और राम मोहन राय सरीखे नेता अंतरजातीय विवाह के लिए अभियान चलाते रहे हैं. लेकिन जाति प्रथा के घोर विरोधी भी अंतरधार्मिक विवाहों, खासकर इस्लाम धर्म में विवाह को लेकर चुप्पी साधे रहे हैं.

धर्मांतरण के घोर विरोधी गांधी ने भी अपने पुत्र हीरालाल को तब त्याग दिया था, जब वे इस्लाम धर्म अपना कर हीरालाल से अब्दुल्ला गांधी बन गए थे (हालांकि बाद में आर्य समाज के माध्यम से वे फिर हिंदू बन गए थे).

किसी भी राजनेता ने- दूसरे धर्म में विवाह करने वाले राजनेताओं ने भी- अंतरधार्मिक विवाह की खुल कर वकालत नहीं की, हालाकि यह वैध है. सरकार अंतरजातीय विवाह करने वालों को प्रायः इनाम देती रहती है और नेतागण भी प्रायः ऐसे विवाह समारोहो की शोभा बढ़ाते रहते हैं लेकिन अंतरधार्मिक विवाहों के लिए उस तरह का सरकारी समर्थन नहीं दिखता. वैवाहिक विज्ञापनों में ‘जाति का बंधन नहीं’ लिखा हुआ तो शायद ही मिलता है, ‘धर्म का बंधन नहीं’ लिखा हुआ तो दुर्लभ ही है, यह स्पष्ट करता है कि राजस्थान वाले वीडियो क्यों बनते हैं. हिंसा के पीछे विवाह के जरिए यथास्थिति बनाए रखने की लंबी प्रथा का ही हाथ है.

हिंदू अखिला धर्म परिवर्तन करके हदिया बन गई और मुसलमान शफिन जहां से शादी कर ली. उसकी शादी को लेकर राजनीति चल पड़ी, अदालती मुकदमा चल पड़ा और आतंकवाद से जुड़ाव के संदेह में जांच भी शुरू हो गई.

कुछ महीने पहले ऐसा ही एक मामला हुआ, जो उतना विवादास्पद नहीं बना. एक लद्दाखी महिला स्टांजिन साल्डन धर्म बदलकर शिफह बन गई. इस महिला के धर्म परिवर्तन और करगिल के एक मुसलमान से उसकी शादी के खिलाफ आवाज उठाते हुए लद्दाख बौद्ध संघ ने इसे ‘हमारी लड़कियों को छीनना’ कहा. हमारे समाज के सबसे वंचित आदिवासी तथा दलित तबके भी मुसलमानों के मामले में इसी मानसिकता से काम करते हैं.

जब हम राहुल के धर्म की बात करते हैं, तब भी हमारी यह चिंता झलक जाती है. जब हम राहुल और सोनिया के धर्म के बारे में व्हाट्सअप मेसेज या वीडियो भेजते हैं, तब अनकहा संदेश यह होता है कि अगर आप अंतरधार्मिक विवाह से पैदा हुई संतान हैं तो अपने धर्म के बारे में अस्पष्टता बनाए रखिए, और यह कि हमें आपकी राजनीति पर भरोसा नहीं है. लेकिन विडंबना यह है कि कांग्रेस वाले भी इस मानसिकता से मुक्त नहीं हैं. यही वजह है कि उनके पार्टी वालों ने राहुल के पिता और दादी से और पीछे जाकर परनाना जवाहरलाल नेहरू के धर्म का उल्लेख कर दिया, क्योंकि उनकी पीढ़ी में कोई कथित घालमेल नहीं हुआ था.

इस चिंता का बहुत कुछ संबंध उस ख्वाहिश से है, जो जनसांख्यिकी पर पकड़ बनाए रखना चाहती है और अपनी जमात में कोई कटौती नहीं चाहती क्योंकि ऐसे विवाह के लिएं धर्म परिवर्तन करना पड़ता है.

पिछले साल पेंसिलवानिया विश्वविद्यालय ने एक सर्वे किया था जिसका शीर्षक था- भारत में सामाजिक प्रवृत्ति पर शोध. इसमें पाया गया कि पूरे भारत में, दिल्ली जैसे महानगर तक में अंतरजातीय तथा अंतरधार्मिक विवाहों के प्रति अस्वीकार्य सीमा तक असहिष्णुता है. दिल्ली में करीब 60 प्रतिशत हिंदुओं ने कहा कि वे यह बर्दाश्त नहीं करेंगे कि उनके परिवार का कोई व्यक्ति किसी मुसलमान से शादी करे. यही हाल मुसलमानों में था हिंदुओं में वैवाहिक संबंध बनाने को लेकर उत्तर प्रदेश का हाल सबसे बदतर था.

वहां 75 प्रतिशत हिंदू मुस्लिम व्यक्ति से शादी के खिलाफ थे, तो 70 प्रतिशत मुसलमान हिंदुओं में शादी करने के खिलाफ थे. प्रायः ऐसे सर्वे होते रहते हैं, जो यह बताते हैं कि शहरी, शिक्षित नई पीढ़ी पारिवारिक सहमति से होने वाली शादी की कितनी पक्षधर हैं. इस तरह की शादी को परिवार के बुजुर्गों के प्रति सम्मान के प्रदर्शन के तौर पर प्रचारित किया जाता है. जब तक हम अरेंज्ड विवाह की संस्था को अपनी परंपरा तथा संस्कृति का वरदान मानते रहेंगे, मिश्रित विवाह के प्रति खापनुमा विरोध कायम रहेगा. और राहुल तथा हदिया का सार्वजनिक तथा राजनीतिक छिद्रान्वेषण चलता रहेगा, और हम एक-दूसरे को हत्या के वीडियो भेजते रहेंगे. आर्थिक प्रगति, शहरीकरण और बच्चों के जीवन में माता-पिता के हस्तक्षेप की समाप्ति परिवर्तन का आधार तैयार कर सकती है, भले ही राजनीति अपने प्रतिगामी रुख पर अडिग रहे.

रमा लक्ष्मी दप्रिंट की ओपीनियन एडिटर हैं