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Thursday, April 25, 2024
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2जी मामले में मोदी के प्रिंसिपल सेक्रेटरी नृपेंद्र मिश्र के बयान की कोर्ट ने की अनदेखी

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ए राजा जब दूरसंचार मंत्री थे, तो नृपेंद्र मिश्र ट्राई के चेयरमैन थे. हालांकि, कोर्ट ने कहा कि उनका बयान गवाहों या सरकारी कागज़ातों से मेल नहीं खाता है.

नयी दिल्लीः ए राजा और अन्य आरोपियों को 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन के मामले में रिहाई मिलना वरिष्ठ नौकरशाह नृपेंद्र मिश्र की गवाही को केंद्र में ला दिया है.

मिश्र अभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रिंसिपल सेक्रेटरी हैं और तब वह टेलीकॉम रेगुलेटर अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) के अध्यक्ष थे. वह पूर्व दूरसंचार सचिव भी रह चुके हैं। सीबीआई ने मामला बनाने के लिए उनके बयान पर काफी भरोसा किया, लेकिन कोर्ट उससे असहमत दिखी.

हालांकि कोर्ट ने मिश्र की सराहना की, पर यह भी कहा कि दूसरे गवाहों या आधिकारिक कागजात से उनकी बात नहीं मिलती. फैसले में 44 बार मिश्र का उल्लेख हुआ है.

कुछ अहम मसलों, जैसे लाइसेंस के लिए प्रवेश शुल्क बढ़ाना, स्पेक्ट्रम की नीलामी और पूर्व अधिकार (क्लियरेंस) आदि पर मिश्र के स्टैंड को कोर्ट से समर्थन नहीं मिला. मिश्र ने कहा कि उन्होंने ‘बाजार की प्रक्रिया’(मार्केट मैकेनिज्म) के जरिए स्पेक्ट्रम पर फैसला लेने को कहा था, जबकि राजा ने लाइसेंस की प्रवेश प्रक्रिया शुल्क बढ़ाने के और स्पेक्ट्रम की नीलामी के खिलाफ रुख अपनाया था.

न्यायाधीश ओ पी सैनी ने कहा, ‘अगर श्री नृपेंद्र मिश्र का बयान भी मान लिया जाए, तो प्रवेश शुल्क की समीक्षा की सिफारिश की गयी थी. रिकॉर्ड पर कुछ भी ऐसा नहीं है, जिससे कोई भी इन सिफारिशों को सही संदर्भ में समझे’.

कोर्ट ने आगे यह भी कहा कि 2007 में ट्राई की प्रवेश शुल्क पर पुनर्विचार की सिफारिशें भी संदर्भ से काट कर पेश की गयीं ताकि यह तर्क दिया जा सके कि यह सिफारिश दूरसंचार क्षेत्र की अभूतपूर्व प्रगति के आधार पर कहा गया था.

फैसले में कहा गया है, ‘हालांकि, अगर पूरे अनुच्छेद को सही संदर्भ में पढ़ें तो यह साफ है कि जहां तक 2जी के लिए शुरुआती स्पेक्ट्रम का सवाल है, तो इसमें किसी बदलाव की अनुशंसा नहीं है. मैं कोई ऐसी दूसरी गवाही नहीं देख पाया, जिसने 2जी स्पेक्ट्रम के लिए शुरुआती शुल्क के पुनरीक्षण के लिए ट्राय की अनुशंसा की बात कही है. एक अकेले गवाह ने भी इसका साथ नहीं दिया, श्री नृपेंद्र मिश्र के अलावा. हालांकि, सिफारिशों की विषय वस्तु भी उनकी गवाही का समर्थन नहीं करती’.

सीबीआई कोर्ट के निर्णय के खिलाफ अपील को मिश्र की गवाही के इर्द-गिर्द ही बनाना चाहती है. सीबीआई के एक अधिवक्ता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘क्या कोर्ट को सिफारिशों के अपने संदर्भ देने चाहिए, जबकि खुद उसे लिखने वाले अध्यक्ष ने उसकी व्याख्या की है? हाईकोर्ट में मिश्र की गवाही के प्रति कोर्ट की अनदेखी के खिलाफ ज़ोरदार लड़ाई होगी‘.

दूरसंचार सचिवों की लगातार रस्साकसी

दूरसंचार विभाग के दो पूर्व सचिव मिश्र और उनके तुरंत बाद आए डी एस माथुर ने गवाही दी कि राजा ने अपने फैसले लेने में अपने विभाग सहित दूसरे विभागों के नौकरशाहों की भी अनदेखी की. हालांकि, मिश्र और माथुर कई मसलों पर असहमत थे.

माथुर ने दावा किया है कि उन्होंने ट्राई द्वारा उठाए सभी मुद्दे एक अलग और स्वतंत्र टिप्पणी के तौर पर लिखी थी, लेकिन वह कोर्ट रिकॉर्ड का हिस्सा नहीं है. हालांकि, कोर्ट ने यह कहा है कि ट्राई के प्रावधानों को समझने के मसले पर मिश्र और माथुर एकमत नहीं थे.

अचरज की बात यह कि जहां न्यायाधीश ने माना कि ट्राई की ऐसी कोई सिफारिश नहीं थी जिसे राजा ने अनदेखा किया हो, कहा कि मिश्र को छोड़कर किसी दूसरे नौकरशाह ने ऐसा नहीं कहा, लेकिन वहीं न्यायालय ने इन सुझावों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने को लेकर मिश्र की प्रशंसा भी की.

न्यायाधीश ने कहा, ‘उन्होंने श्री डी एस माथुर से इन सुझावों के दूरगामी प्रभावों को दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री के संज्ञान में लाने को भी कहा. इस बार भी, श्री डी एस माथुर ने जवाब देने की परवाह नहीं की. यह दिखाता है कि श्री नृपेंद्र मिश्र ट्राय के सुझावों को पर्याप्त तौर पर कार्यान्वित कराने के लिए कितनी मेहनत कर रहे थे’.

कोर्ट ने दरअसला पूरी गलती का ठीकरा माथुर पर फोड़ दिया है, उनके ‘लापरवाह और गैर-जिम्मेदार रवैए के लिए’. कोर्ट ने यह भी कहा कि माथुर ने अक्टूबर से दिसंबर 2007 के बीच तत्कालीन ट्राई अध्यक्ष मिश्र के कम से कम सात संदेशों का कोई जवाब नहीं दिया.

जज ने माथुर को 2007 में राज्यसभा सांसद राजीव चंद्रशेखर के लिखे एक पत्र का जवाब नहीं देने का भी दोषी ठहराया, जो बहुचरणीय नीलामी प्रक्रिया से संबंधित था. बाद में सांसद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर राजा की अनियमितताओं की जानकारी दी थी. कोर्ट ने यह भी कहा कि माथुर दूरसंचार विभाग में फैले गडबड़ी के लिए ‘मुख्य तौर पर जिम्मेदार’ हैं.

जज ने निष्कर्ष के तौर पर कहा, ‘वह शायद 31 दिसंबर 2007 को अपने आनेवाले अवकाश का इंतजार कर रहे थे. वह अपने अवकाश का इंतजार औऱ भी अच्छे तरीके से कर सकते थे’.

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