scorecardresearch
Friday, March 29, 2024
Support Our Journalism
HomeOpinionचुनाव आयोग के इतिहास में गुजरात चुनाव निम्नतम बिंदु है: योगेंद्र यादव

चुनाव आयोग के इतिहास में गुजरात चुनाव निम्नतम बिंदु है: योगेंद्र यादव

Follow Us :
Text Size:

दिप्रिंट का सवाल:

क्या पूर्व आइएएस अधिकारियों को चुनाव आयोग का कर्ताधर्ता नहीं बनना चाहिए, ताकि इसकी स्वतंत्रता बनी रहे?

समय हो चुका है कि चुनाव आयोग में संस्थागत सुधार की बात हो। स्वाधीनता की कमी इसकी एकमात्र समस्या नहीं है. आइएएस अधिकारियों से छुट्टी पाना शायद एकमात्र समाधान न हो.

गुजरात चुनाव ने एक बार फिर चुनाव आयोग की बढ़ती भंगुरता को प्रकाश में ला दिया है. चुनावी समय-सारिणी की घोषणा में होनेवाली अव्याख्येय देरी, राहुल गांधी और भाजपा नेताओं के मीडिया कवरेज पर दी गयी प्रतिक्रिया ने इस संदेह को बढ़ा दिया है कि चुनाव आयोग सत्ता के वफादार अधिकारियों से भरा हुआ है. यह चुनाव आयोग के इतिहास में निम्नतम बिंदु है, जब शेषन-युग में इसका दोबारा एक स्वतंत्र-स्वायत्त संस्था के तौर पर जन्म हुआ था.

घटती स्वायत्तता के बीच, चुनाव आयोग में पेशेवर रवैए की भी कमी है. पिछले 25 वर्षों से, चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली लगभग सुरक्षित खेलने, छोटी बातों में लगे रहने, प्रजातांत्रिक राजनीति को न समझने और राजनीतिक सुधार के व्यापक मसलों की उपेक्षा करने की रही है।. अधिकांश भारतीय संस्थानों की तरह ही, चुनाव आयोग भी शांत लेकिन दृढ़ विधानों (रेगुलेशन) की कला नहीं जानता. उसकी प्रतिक्रीया रीढ़विहीनता और अतीसंवेदनशीलता के बीच झूलती रहती है.

समस्या का एक हिस्सा नियुक्तियां हैं. हालांकि, कानून यह नहीं मांगता, लेकिन व्यवहारतः इस संस्थान में पूर्व आइएएस अधिकारियों का बोलबाला है. आज चुनाव आयोग नयी चुनौतियों से लैस है, जिसके लिए यह पेशेवराना तरीके से कमज़ोर हैः ईवीएम का उत्पादन और निरीक्षण, सोशल मीडिया पर लगाम, राजनीतिक दलों के करों और खातों की जांच आदि कुछ ऐसी ही चुनौतियां हैं. ऐसी स्थिती में पेशेवरों के लेटरल प्रवेश पर भी गंभीरता से विचार होना चाहिए. आयुक्त (कमिश्नर) के स्तर पर, चयन के लिए सभी केंद्रीय सेवाओं के अधिकारियों, अवकाशप्राप्त न्यायाधीश और जीवन के हरेक क्षेत्र से नामचीनों के लिए दरवाजे खोलने का भी मामला आता है. जैसा केंद्रीय सूचना आयोग में भी होता है. हालांकि, यह शायद ही समाधान हो. दूसरी सेवाओं या पूर्व न्यायाधीशों में भी आसानी से वश में आनेवाले अधिकारी मिल सकते हैं.

नियुक्ति की प्रक्रिया अधिक महत्वपूर्ण है. संविधान के तहत, चुनाव आयोग में नियुक्ति पूरी तरह से सरकार का विसेषाधिकार है। चुनाव आयोग के अधिकार जैसे-जैसे बढ़तेगए, सरकारों ने शेषन और लिंगदोह जैसे ‘जोखिम वाले’ अधिकारियों को बाहर रखने और यदि संभव हो, तो मर्जी से चल सकने वाले अधिकारियों को नियुक्त करना सीख लिया. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला और वर्तमान सीइसी (मुख्य चुनाव आयुक्त) अचल कुमार ज्योति साफ तौर पर दूसरी श्रेणी में आते हैं. यह तरीका हालिया संस्थानों जैसे लोकपाल को ध्यान में रखते हुए बदलना चाहिए. चयन समिति में विपक्ष के नेता और मुख्य न्यायाधीश को भी जरूर होना चाहिए.

अंतिम बातः नियुक्ति की मेहनत वाली प्रक्रिया और बेहतर नियुक्तियां जरूरी हैं, लेकिन एक अच्छे संस्थान के लिए पर्याप्त नहीं। स्वायत्त संस्थानों को लगातार सार्वजनिक निगरानी और आलोचना की जरूरत होती है. उस हिसाब से, गुजरात में चुनाव आयोग की दुर्भाग्यपूर्ण विवादित भूमिका से एक और सीख मिल सकती है.

योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.

Subscribe to our channels on YouTube, Telegram & WhatsApp

Support Our Journalism

India needs fair, non-hyphenated and questioning journalism, packed with on-ground reporting. ThePrint – with exceptional reporters, columnists and editors – is doing just that.

Sustaining this needs support from wonderful readers like you.

Whether you live in India or overseas, you can take a paid subscription by clicking here.

Support Our Journalism

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular