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Thursday, March 28, 2024
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गुजरात में ‘केवट’ मोदी ने भाजपा की डूबती नय्या को कराया पार

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गुजरात में चुनाव-प्रचार के दौरान कांग्रेस ने भाजपा की कमियों पर प्रहार किया, लेकिन खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कोई तोड़ उनके पास नहीं था.

नयी दिल्लीः भाजपा गुजरात में लगातार छठी बार शासन संभालने जा रही है, भले ही कांग्रेस ने 2012 के मुकाबले अपनी सीटों में उल्लेखनीय वृद्धि की है.

अब जबकि धूल बैठ रही है, नतीजे हमें एक अंतर्दृष्टि देते हैं कि किस तरह विभिन्न बातों को मुद्दा बनाया गया और क्यों भाजपा सब कुछ के बावजूद जीत गयी.

राज्य में 22 वर्षों और केंद्र में लगभग चार वर्षों से भाजपा सत्ता में थी और उसकी कई कमज़ोर नसें थीं- पाटीदार आंदोलन, किसानों का असंतोष, जीएसटी और नोटबंदी पर रोष. इसके पक्ष में केवल राज्य का विकास, इसकी मजबूत शहरी उपस्थिति और सबसे बढ़कर प्रधानमंत्री मोदी की अपार लोकप्रियता थी.

कांग्रेस ने भाजपा की कमजोरियों को पकड़ा, इन मुद्दों को बार-बार उठाया और साथ ही एक मज़ेदार जातिगत समीकरण बनाकर भी खुद को मजबूत किया.

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पाटीदार आंदोलन का नुकसान साफ तौर पर भाजपा को उठाना पड़ा, अगर हम सौराष्ट्र में आयी सीटों को देखें, जहां इसके अलावा किसानों के असंतोष ने भी भाजपा को नुकसान पहुंचाया.

मोरबी में- जो गुजरात का सेरेमिक हब है- जहां नोटबंदी और जीएसटी का बहुत प्रभाव पड़ा था और जहां पाटीदार भी खासी संख्या में थे, दिप्रिंट ने पाया कि सरकार की आर्थिक नीतियों पर गुस्सा तो उड़ गया है, लेकिन पाटीदारों का विद्रोह एक बड़ा मुद्दा था. इसका प्रमाण है कि भाजपा ने ज़िले की तीनों सीटें गंवा दी.

दूसरी ओर, राजकोट में भाजपा का वफादार शहरी वर्ग है, जिसने पाटीदार आंदोलन की तपिश को कम कर दिया. यहां पार्टी को आठ में छह सीटें मिली हैं। दिप्रिंट ने लोगों, खासकर युवाओं और पहली बार वोट देनेवालों में भाजपा का काफी समर्थन देखा, अगर पटेल समुदाय के कुछ युवाओं को छोड़ दें तो.

जूनागढ़ में कपास के किसान हालांकि अपने उत्पाद के लिए अपर्याप्त मूल्य से खासे उखड़े थे, लेकिन समर्थन उन्होंने भाजपा का ही किया. हालांकि दूसरे भागों में  किसान बेचैन और एक बदलाव के लिए आतुर दिखे. यह साफ है कि ग्रामीण सौराष्ट्र ने भाजपा से अपनी नाराजगी दिखायी भी है और कांग्रेस का समर्थन किया है.

भाजपा के लिए जीत की कुंजी शहरी वोटों में थी. अहमदाबाद और सूरत ने इसकी भरपाई कर दी. जब अहमदाबाद की 21 में से 11 विधानसभा क्षेत्रों में दिप्रिंट ने पड़ताल की थी तो इसको भाजपा और मोदी के लिए काफी समर्थन देखने को मिला था. वोटर्स का मुख्य मुद्दा विकास था। वहीं, 2012 में भाजपा ने यहां की 17 सीटें जीती थीं, इस बार वह आंकड़ा 16 का था.

सूरत में हालांकि दिप्रिंट को भाजपा की वाणिज्यिक नीतियों के प्रति गुस्सा देखने को मिला था, हालांकि लगभग सभी व्यापारियों ने कहा था कि वे भाजपा का समर्थन करेंगे क्योंकि कोई अन्य विश्वास करने लायक विकल्प मौजूद नहीं है. सूरत में भाजपा को 16 में से 15 सीटें मिली हैं.

अमरेली, जो सहकारिता का गढ़ है, महिला मतदाताओं वाला, जो मोदी के सबसे अभेद्य प्रशंसक हैं, हालांकि आश्चर्यजनक तौर से विभाजित दिखे। साफ तौर पर यह मोहभंग चुनावी हार में भाजपा के लिए बदला और जिले में वह पांचों सीटें हार गयी.

उत्तरी गुजरात, जो भाजपा की कमज़ोर नस है, में पार्टी को अपने बाढ़-सहायता अभियान को भुनाने की उम्मीद थी. बनासकांठा में ‘दिप्रिंट’ ने बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित इलाकों में मिश्रित प्रतिक्रिया देखी. इसमें राज्यमंत्री शंकर चौधरी का इलाका वाव भी शामिल है. चौधरी लगभग 6000 वोटों से हार गए. भाजपा को बनासकांठा में 9 में तीन सीटों पर पिछली बार जीत मिली थी और इस बार भी उतनी ही सीटों पर वह जीती.

विद्रोही कांग्रेसी विधायकों को टिकट देने की भाजपाई रणनीति भी मिश्रित नतीजे लायी. जानगर में ऐसे दो विधायक थे. दिप्रिंट ने उनको लोकप्रिय पाया, भले उनकी पार्टी कुछ भी हो. जामनगर उत्तर से जहां विद्रोही विधायक जीत गए, जामनगर ग्रामीण से कांग्रेस प्रत्याशी ने विद्रोही विधायक को हरा दिया.

अपने भ्रमण के दौरान दिप्रिंट ने पाया कि भाजपा आदिवासी समुदाय में महत्वपूर्ण सेंध लगा रही है. डांग, जो पारंपरिक तौर पर कांग्रेस का गढ़ रहा है, में मोदी का ‘विकास’ लोकप्रिय हो रहा है. भाजपा ने यह सीट 700 के मामूली अंतर से गंवायी. पंचमहल के कलोल और हलोल जैसे आदिवासी-प्रधान इलाकों में भी दिप्रिंट को भाजपा के लिए खासा समर्थन दिखा. आदिवासी सरकार की बढ़िया सड़क और पक्के घरों के लिए प्रशंसा कर रहे थे. भाजपा ने दोनों सीटें जीतीं.

मोदी का विकल्प नहीं

एक तरफ, भाजपा ने नोटबंदी और जीएसटी के सवालों को अनदेखा किया, पाटीदार आंदोलन को कुछ खास इलाके तक ही सीमित कर उसका प्रभाव रोका, आदिवासी समुदाय में अपनी बढ़त बनायी, अपने शहरी वोट बैंक को अक्षुण्ण रखा और कुछ हद तक अपने ‘विकास’ के प्रारूप को दुहने में भी सफल हो गए. भाजपा किसानों के असंतोष को रोकने, ग्रामीण गुजरात में बढ़ने या पाटीदार आंदोलन को दूसरे जातिगत समीकरण द्वारा प्रभावहीन करने में असफल रही.

हालांकि, कई बार इन आपस में गुंथे हुए उदाहरणों ने महत्वपूर्ण मुद्दों को जनता तक ले जाने में, ज़मीनी मसला बनाने में सफलता पायी, लेकिन एक चीज जो पूरे राज्य में स्थायी थी: प्रधानमंत्री मोदी के प्रति शुभेच्छाएं और सद्कामना.

इसीलिए, यह कहना शायद सुरक्षित होगा कि मोदी ही भाजपा के सबसे बड़े तुरुप के पत्ते थे जिसका कोई जवाब कांग्रेस के पास नहीं था.

रूही तिवारी दिप्रिंट की एसोसिएट एडिटर हैं.

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